चुनाव - एक महापर्व

एक महापर्व खत्म। यूं तो हम भारतीय सालों भर कोई ना कोई पर्व मनाते ही रहते हैं। प्रत्येक वर्ष फिर से पर्वों का पुनरागमन होता है , और हम उसे हर साल की तरह दूने उत्साह और जोश के साथ मनाते हैं। 


पर,  जिस पर्व की हम यहां बात कर रहे हैं, वह पर्व प्रत्येक 5 वर्ष पर आता है, कुछ अपवादों को छोड़कर। हम इस पर्व को पूरे हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। कहीं कोई कोर कसर नहीं छोड़ते हैं।

 जी हां! आप बिल्कुल सही समझे। हम बातें कर रहे हैं, चुनाव रूपी पर्व की। लोकतंत्र में सरकार चुनने के लिए प्रत्येक पांच वर्ष में आने वाला यह एक महान पर्व ही तो है । 

पुरे पांच वर्ष के लिए सरकार चुनी जाती है। चुनावी महापर्व, पर्व होने के साथ ही साथ एक अखाड़ा भी है जहां चुनावी समर में उतरने वाले विभिन्न दलों के लोग एक-दूसरे से जोर आजमाइश करते हुए दिखाई देते हैं । 

एक दूसरे के खिलाफ ताल ठोकते हैं। अपने अपने तरकश में रखे तमाम तीरों को समय-समय पर एक दूसरे पर चलाते रहते हैं। शब्द भेदी बाणों का तो कहना ही क्या?ये मारा तो वो मारा बस चलता ही रहता है। आर्थिक मंदी - यह भला किस चिड़िया का नाम है, उस वक्त पता ही नहीं चलता है। अघोषित रूप से हमारी अर्थव्यवस्था सरपट भाग रही होती है ।

खैर! एक दूसरे से लड़ाई वो  जरूर लड़ते हैं, पर असली खेल तो कोई और खेल रहा होता है। आप लड़ रहे होते हैं। चारों ओर आपकी चर्चाएं हो रही होती है। क्या प्रिंट मीडिया, क्या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और क्या सोशल मीडिया हर तरफ़ चर्चाओं का बाज़ार गर्म रहता है। एक धूम सी मची हुई होती है। पर हकीकत में कौन लड़ रहा होता है ? 

कुछ देर के लिए हम शायद भूल जाते हैं।  हकीक़त में तो इस देश के मतदाता चुनाव लड़ रहे होते हैं। ठीक मतदान के दिन वो उत्सवी  माहौल में बाहर निकल आपकी हार और जीत का फैसला कर चुपचाप से घर के अंदर बैठ जाते हैं।  आप और हम तो सभी कठपुतलियां हैं, मतदाताओं के हाथों की।

 तय समय और दिन पर चुपके से आते हैं और हमारे आपके भविष्य के साथ ही साथ आने वाले पांच वर्षों के लिए हमारे लिए नीति नियंता भी दे जाते हैं।

 यही तो खूबसूरती है लोकतंत्र की।  लोकतंत्र कहें या प्रजातंत्र यहां जनता ही जनार्दन है। बतौर मतदाता हम भूल जाते हैं अपने अधिकार को। भूल जाते हैं हम यह भी कि असली ताकत तो हमारे पास है पर, हम है कि अपनी ताकत को समझते नहीं हैं और ठीक मतदान के दिन अपने संवैधानिक कर्तव्यों और दायित्वों का निर्वहन ना कर छुट्टियां मनाते हैं ।

हो सकता है कि मैं गलत हूं, पर मतदान का प्रतिशत तो कम से काम यही बताता है।मेरा मानना है कि आप मतदान अवश्य करें और अन्यों को भी प्रेरित करें। तभी हम अपने लोकतंत्र को और सशक्त और प्रभावी बना पाएंगे।

अभी अभी लोकसभा का चुनाव ख़त्म हुआ है। विभिन्न दलों के नेताओं, सोशल मीडिया पर चल रहे एक्जिट पोल और ओपिनियन पोल को दरकिनार कर भारतीय मतदाताओं ने बड़े ही खामोशी के साथ मतगणना के दिन अपना निर्णय सुना दिया। विगत कुछ महीनों से चल रहा महासंग्राम मानों एकदम से थम गया।

 सभी लोग एकदम से खामोश हो गए। यही लोकतंत्र है और यही है लोकतांत्रिक व्यवस्था की खुबसूरती जहां कोई भी सर्वोपरि नही है। हर व्यक्ति कहीं ना कहीं किसी ना किसी रूप में किसी ना किसी पर निर्भर रहता है।

✒ मनीश वर्मा'मनु'


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