भगवान विष्णु की अनन्त शक्ति और उनकी निरंतरता का प्रतीक है अनन्त पूजा

भगवान विष्णु की अनन्त शक्ति और उनकी निरंतरता का प्रतीक माना जाता है अनन्त चतुर्दशी। अनन्त शब्द का अर्थ होता है 'जिसका कोई अंत न हो'। अनन्त चतुर्दशी के दिन भगवान विष्णु को अनन्त स्वरूप में पूजा जाता है। अनन्त का यह भी अर्थ है कि जो कभी भी अस्त ना हो, जो कभी भी समाप्त न हो और चतुर्दशी का अर्थ है चैतन्य रूपी शक्ति। इस व्रत को करने से जीवन में आने वाली कठिनाइयों और दुखों का निवारण होता है।



अनन्त चतुर्दशी का व्रत भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को हर वर्ष अनन्त चतुर्दशी मनाया जाता है। पंचांग के अनुसार, इस वर्ष 16 सितंबर को 3 बजकर 10 मिनट पर चतुर्दशी तिथि की शुरुआत होगी और अगले दिन 17 सितंबर को 11 बजकर 44 मिनट पर यह समाप्त हो जाएगा। उदया तिथि के अनुसार, 17 सितंबर को अनन्त चतुर्दशी की पूजा की जाएगी। 

अनन्त चतुर्दशी के संबंध में मान्यता है कि महाभारत काल से अनन्त चतुर्दशी व्रत की शुरुआत हुई है। अनन्त भगवान ने सृष्टि के आरंभ में चौदह लोकों तल, अतल, वितल, सुतल, तलातल, रसातल, पाताल, भू, भुवः, स्वः, जन, तप, सत्य और मह की रचना की थी। इन लोकों का पालन और रक्षा करने के लिए वह स्वयं भी चौदह रूपों में प्रकट हुए थे, जिससे वे अनन्त प्रतीत होने लगे। 

अनन्त की पूजा में 14 गांठ होते हैं। अनन्त पीले, लाल रेशमी धागे या लाल + पीला मिलाकर बनाया जाता है और इसकी पूजा की जाती है। पूजा के पश्चात पुरुष दाएं तथा स्त्रियां बाएं हाथ में बाँधती है। चतुर्दशी पूर्णिमा युक्त होने पर विशेष लाभदायक होती है। इस व्रत की शुरुआत यदि कोई व्यक्ति बताता है तब किया जाता है या फिर अनन्त का धागा आसानी से मिलने पर किया जाता है और फिर यह व्रत उस कुल (खानदान) में चालू रहता है। 

मान्यता है कि अनन्त व्रत के धागे के 14 गांठों का महत्त्व है मनुष्य शरीर में 14 प्रमुख ग्रंथियां।  इस ग्रंथि के प्रतीक स्वरूप धागे में 14 गांठें रहती हैं। प्रत्येक ग्रंथि के विशिष्ट देवता रहते हैं। इन देवताओं का इन गांठों पर आवाहन किया जाता है। धागों का बल (मरोड़) शरीर से एक ग्रंथि से दूसरे ग्रंथि तक प्रवाहित होने वाली क्रिया शक्ति रुपी चैतन्यता के प्रवाह का प्रतीक है। 14 गांठों वाले धागे को मंत्र की सहायता से प्रतीकात्मक रूप से पूजा करके ब्रह्मांड के श्री विष्णु रूपी क्रिया शक्ति के तत्व की धागे में स्थापना करके ऐसी क्रिया शक्ति से और उसको भारित कर वह धागा बाजू में बांधने से देह पूर्णता शक्ति से भारित हो जाता है। इस कारण चेतना के प्रवाह को गति मिल कर देह का कार्य बल बढ़ने में सहायता मिलती है। 

अनन्त चतुर्दशी का व्रत भगवान विष्णु को प्रसन्न करने और अनन्त फल देने वाला माना जाता है। मान्यता है कि इस दिन व्रत रखने के साथ-साथ यदि कोई व्यक्ति श्री विष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्र का पाठ करता है, तो उसकी समस्त मनोकामना पूर्ण होती है। इसलिए लोग धन-धान्य, सुख-संपदा और संतान आदि की कामना से यह व्रत करते है। 

पुराणों मे इस व्रत को करने का विधान नदी या सरोवर पर उत्तम माना गया है। परंतु आज के आधुनिक युग में यह सम्भव नहीं होता है, इसलिए घर में ही पूजा स्थान पर शुद्धिकरण करके अनन्त भगवान की पूजा तथा कथा किया और सुना जाता है। 

कहा जाता है कि एक दिन कौण्डिन्य मुनि की दृष्टि अपनी पत्नी शीला के बाएं हाथ में बंधे अनन्त सूत्र पर पडी, जिसे देखकर वह भ्रमित हो गए और उन्होंने पूछा-क्या तुमने मुझे वश में करने के लिए यह सूत्र बांधा है? शीला ने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया-जी नहीं, यह अनन्त भगवान का पवित्र सूत्र है। परंतु ऐश्वर्य के मद में अंधे हो चुके कौण्डिन्य मुनि ने अपनी पत्नी की सही बात को भी गलत समझा और अनन्त सूत्र को जादू- मंतर वाला वशीकरण करने उसे डोरा समझकर तोड दिया तथा उसे आग में डालकर जला दिया।

 इस जघन्य कर्म का परिणाम भी शीघ्र ही सामने आ गया। उनकी सारी संपत्ति नष्ट हो गई। दीन-हीन स्थिति में जीवन-यापन करने में विवश हो जाने पर कौण्डिन्य मुनि ने अपने अपराध का प्रायश्चित करने का निर्णय लिया। वे अनन्त भगवान से क्षमा मांगने के लिए वन में चले गए। उन्हें रास्ते में जो मिलता वे उससे अनन्त देव का पता पूछते जाते थे। बहुत खोजने पर भी कौण्डिन्य मुनि को जब अनन्त भगवान का साक्षात्कार नहीं हुआ, तब वे निराश होकर प्राण त्यागने को उद्यत हुए। तभी एक वृद्ध ब्राह्मण ने आकर उन्हें आत्म हत्या करने से रोक दिया और एक गुफा में ले जाकर चतुर्भुज अनन्त देव का दर्शन कराया।

भगवान ने कौण्डिन्य मुनि से कहा- तुमने जो अनन्त सूत्र का तिरस्कार किया है, यह सब उसी का फल है। इसके प्रायश्चित के लिए तुम चौदह वर्ष तक निरंतर अनन्त-व्रत का पालन करो। इस व्रत का अनुष्ठान पूरा हो जाने पर तुम्हारी नष्ट हुई सम्पत्ति तुम्हें पुन: प्राप्त हो जाएगी और तुम पूर्ववत् सुखी-समृद्ध हो जाओगे।

 कौण्डिन्य मुनि ने इस आज्ञा को सहर्ष स्वीकार कर लिया। भगवान ने आगे कहा- जीव अपने पूर्ववत् दुष्कर्मो का फल ही दुर्गति के रूप में भोगता है। मनुष्य जन्म- जन्मांतर के पातकों के कारण अनेक कष्ट पाता है। अनन्त व्रत के सविधि पालन करने से पाप नष्ट होते हैं तथा सुख-शांति प्राप्त होती है। कौण्डिन्य मुनि ने चौदह वर्ष तक अनन्त व्रत के नियमपूर्वक पालन कर के खोई हुई समृद्धि को पुन:प्राप्त कर लिया था।

जितेन्द्र कुमार सिन्हा, पटना, 



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