पैशन का दिवास्वपन ( मनु की बात )

जब कोई व्यक्ति अपने पैशन' को जीता है, तो एक समय ऐसा आता है, जब उसका पैशन उसे उसके दिवास्वप्नों की दुनिया में ले जाता है। वह व्यक्ति बेख्याली में ही सही, कल्पनाओं और फंतासी की दुनिया में खो जाता है। ऐसा चाहे, अनचाहे अमूमन सबके साथ ही होता है। पैशन है ही ऐसी चीज।



सपने तो जनाब नींद में आते हैं। जहां कुछ भी स्पप्न के रूप में आ सकता है। पर, यह तो खुली आंखों का सपना है। आप इसमें खो जाते हैं। इसमें आप वहीं देखते हैं, जो आप देखना चाहते हैं। आप ही इसके निर्माता, निर्देशक और पटकथा लेखक भी होते हैं।

ऐसा ही एक सपना मनु ने भी देखा है। खुली आंखों का सपना। दिवास्वप्न कह सकते हैं। हां! दिवास्वप्न ही तो है।

नींद आंखों से कोसों दूर होती है। आप बस अगर बिस्तर पर हैं, तो आंखें बंद कर सिर्फ करवटें बदल रहे होते हैं या फिर आप बेख्याली में डूबे होते हैं और आपका पैशन धीरे-धीरे आपको आपकी कल्पनाओं के सागर में ले जाता है। आप उसे अपने मुताबिक जैसा आप चाहते हैं, बिल्कुल वैसा ही परवान चढ़े देखते हैं।

अब 'मनु तो किसी भी क्षेत्र में कोई ऐसा लब्धप्रतिष्ठित नाम तो है नहीं और ना ही सामाजिक तौर पर पहचाना जाने वाला कोई बड़ा सा नामचीन व्यक्ति। वो तो बेचारा एक आम आदमी है। 'कैटल क्लास का एक अदना सा सदस्य। उसे तो रोटी दाल की जद्दोजहद से फुरसत मिले तब तो कुछ सूझे।

बाजारवाद के इस दौर में जो प्लस प्वाइंट्स होने चाहिए, वो तो है ही नहीं उसके पास। कोई एक्स फैक्टर भी नहीं। फिर बेचारा मनु क्या करे। बेचारा मनु चौराहे पर खड़ा है। किधर जाए, कुछ पता नहीं। अब तो उसके पास एक ही रास्ता बचा और वो है बेख्याली में कल्पनाओं 

 के विस्तृत समंदर में गोते लगाए और अपने आप को फंतासी की दुनिया में धकेल दे। छोड़ दे अपने आप को। कहीं ना कहीं किनारा तो मिलेगा ही। थपेड़ों से लड़ने से फायदा नहीं। आखिरकार, सहारा तो चाहिए। और, जब तक सहारा नहीं मिलता. तो जीवन जीने का मकसद कैसे पूरा होगा। और, यह भी नहीं हो सकता कि मोर सिर्फ और सिर्फ जंगल में नाचे। उसे तो सार्वजनिक तौर पर नाचना है। अपनी प्रतिमा का प्रदर्शन करना है। लोगों के बीच रहना है उसे।

अब लीजिए। सभी के दिन फिरते (बदलते) हैं। तो बेचारे 'मनु' का क्या कुसूर। उसने तो किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा है। उसके भी दिन फिरे।

कल्पनाओं के सागर में गोते लगाते हुए 'मनु' के मन की बात "साहब" ने सुन ली। साहब ने अब बातों ही बातों में मनु की चर्चा कर दी। दो-चार शब्द 'मनु' के बारे में कह दिया। साहब ने 'मनु के बारे में दो-चार शब्द क्या कह दिया, 'मनु' तो रातों-रात प्रसिद्ध हो गया। यही तो चाहता था 'मनु'। अब तो 'मनु' की बल्ले-बल्ले। पांव उसके जमीन पर नहीं पड़ रहे हैं। अब तो उसके दिन वाकई फिर गए। जिंदगी ही बदल गई उसकी। जो 'मनु' पहले एक खोटे सिक्के के समान था। अस्तिवविहीन, पहचान विहीन। हर किसी के लिए एक प्रयोग की वस्तु। हर वक्त उसे अपनी उपयोगिता सिद्ध करनी होती थी। जी हां! बहुत सुधार है। काम अच्छा है! अक्सर ऐसा सुनने वाला बेचारा मनु ।

उम्र के लगभग आधे पड़ाव के बाद भी अगर किसी को अपनी सार्थकता सिद्ध करनी पड़े? नियमित अंतराल पर परीक्षाएं देनी पड़े। फिर तो भगवान ही मालिक है।

तो वाकई 'मनु के दिन फिर गए। साहब ने मनु के मन की बात सुन ली और उसे अपने मन की बात में शामिल जो कर लिया। मनु के तो मानो जैसे सारे ख्वाब ही पूरे हो गए। सारे जहां में एक सैलाब जैसा उमड़ पड़ा। अचानक से जैसे मनु एक सेलेब्रिटी हो गया। लोगों की बधाइयां और शुभकामनाओं का दौर खत्म ही नहीं हो रहा था। मिलने-जुलने वालों का तांता लगा हुआ था। 

प्रेस वाले एक फोटो के लिए पंक्तिबद्ध बड़े थे। पत्रकारों ने तो जैसे सोच ही लिया था। पूरी इंटरव्यू करनी ही करनी है। मनु बेचारा कुछ समझ नहीं पा रहा है। आखिरकार, यह हो क्या रहा है। वो अपने आप को आइने में देख समझने की नाकामयाब कोशिश कर रहा है। अचानक से जैसे उसकी दुनिया बदल सी गई है। बार-बार वह पैरों को जमीन पर टिका कर सच्चाई से अपने आप को अवगत कराने की कोशिश में लगा है।


तभी दरवाजे की घंटी बजती है। घंटी की आवाज से अचानक 'मनु' की तंद्रा भंग होती है। सोया तो वो था नहीं। नींद कहां से उसे आई थी। बस, आंखें बंद करके दिन में सपने देख रहा था। कल्पनाओं का जो सैलाब उमड़ा पड़ा था। अब अचानक से थम सा गया। फंतासी से अब वो बाहर आ गया था। फिर से मेरा 'मनु', आप सभी का 'मनु', वही 'मनु' था।


सुबह से शाम दाल रोटी की मशक्कत में लगा हुआ। जिंदगी की जद्दोजहद के साथ कदमताल करता हुआ। यही तो हकीकत है उसके जिंदगी की।


मनु के मन की बात मन में ही दबी रह गई। साहब के मन की बात, तो कहीं दिवास्वप्न थी। कल्पनाएं थी मनु की। कुछ वक्त के लिए 'मनु' फंतासी की दुनिया में खो गया था। उसके मन की बात सिर्फ और सिर्फ फंतासी थी और कुछ नहीं बस फंतासी।


✒ मनीश वर्मा'मनु



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